हरित क्रांति से अबतक क्या बदला ?

हरित क्रांति और उसका प्रभाव

हरित क्रांति 20वीं शताब्दी के मध्य में कृषि क्षेत्र में हुई एक महत्वपूर्ण पहल थी, जिसने भारत सहित कई विकासशील देशों में खाद्य उत्पादन में अद्वितीय वृद्धि की। इसने न केवल कृषि क्षेत्र को आधुनिकता की ओर अग्रसर किया, बल्कि गरीबी, भूखमरी और आर्थिक पिछड़ेपन जैसी समस्याओं को कम करने में भी अहम भूमिका निभाई। इस लेख में, हम हरित क्रांति के विभिन्न पहलुओं, इसके प्रभाव, और इससे जुड़ी चुनौतियों पर चर्चा करेंगे।

हरित क्रांति: परिभाषा और पृष्ठभूमि

हरित क्रांति कृषि तकनीकों और प्रथाओं में एक परिवर्तनकारी बदलाव को संदर्भित करती है, जो 1960 के दशक में उन्नत बीज, सिंचाई तकनीकों, और रासायनिक उर्वरकों के उपयोग के माध्यम से शुरू हुई। इसका मुख्य उद्देश्य खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि करना था, विशेष रूप से उन देशों में जो खाद्य संकट का सामना कर रहे थे।

पृष्ठभूमि:

  • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कई देशों में खाद्य संकट गंभीर हो गया।
  • भारत में 1943 का बंगाल अकाल और खाद्यान्न की भारी कमी ने इस समस्या को और गहराई दी।
  • 1960 के दशक में, नॉर्मन बोरलॉग जैसे वैज्ञानिकों ने उन्नत किस्म के बीज (उच्च उत्पादकता वाले गेहूं और चावल) विकसित किए।
  • भारतीय कृषि वैज्ञानिकों, जैसे एम.एस. स्वामीनाथन, ने इन तकनीकों को भारत में अपनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

हरित क्रांति के घटक

हरित क्रांति के कार्यान्वयन के दौरान कई प्रमुख घटकों का उपयोग किया गया।

  1. उन्नत बीज और फसल किस्में:
    • उच्च उत्पादकता वाले बीज (HYV – High Yield Variety) जैसे मैक्सिकन गेहूं और IR-8 चावल का प्रयोग।
    • ये बीज पारंपरिक किस्मों की तुलना में अधिक फसल उत्पादन देने में सक्षम थे।
  2. सिंचाई और जल प्रबंधन:
    • बड़े पैमाने पर नहरों और भूमिगत जल स्रोतों का उपयोग।
    • ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई तकनीक का विकास।
  3. रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक:
    • उर्वरकों और कीटनाशकों के व्यापक उपयोग ने पौधों की वृद्धि और कीटों से सुरक्षा को सुनिश्चित किया।
  4. मशीनरी और उपकरण:
    • ट्रैक्टर, थ्रेशर और हार्वेस्टर जैसी मशीनों के उपयोग ने खेती को अधिक कुशल बनाया।
  5. सरकारी नीतियां और समर्थन:
    • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी।
    • कृषि के लिए सस्ती दरों पर ऋण।
    • खाद्य सब्सिडी और भंडारण की बेहतर व्यवस्था।

भारत में हरित क्रांति का प्रभाव

  1. सकारात्मक प्रभाव:
  2. i) खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि:
    हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बना दिया। 1960 के दशक के अंत तक, गेहूं और चावल की पैदावार में दोगुनी वृद्धि हुई। भारत खाद्यान्न आयातक से निर्यातक बन गया।
  3. ii) भूखमरी और गरीबी में कमी:
    उन्नत कृषि तकनीकों ने खाद्य उपलब्धता बढ़ाई और खाद्यान्न संकट को समाप्त किया। ग्रामीण इलाकों में रोजगार के अवसर बढ़े।

iii) आर्थिक विकास:
कृषि में सुधार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती दी। इससे कृषि निर्यात में वृद्धि हुई और विदेशी मुद्रा का संग्रह संभव हुआ।

  1. iv) आधुनिक कृषि का विकास:
    मशीनों और तकनीकों के उपयोग ने कृषि को एक पारंपरिक पेशे से आधुनिक उद्योग में बदल दिया।
  2. v) ग्रामीण बुनियादी ढांचे का विकास:
    हरित क्रांति के कारण सड़कों, गोदामों, सिंचाई परियोजनाओं और बिजली आपूर्ति में निवेश बढ़ा।
  3. नकारात्मक प्रभाव:
  4. i) क्षेत्रीय असमानता:
    हरित क्रांति का लाभ मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों को हुआ। भारत के अन्य हिस्से, जैसे पूर्वोत्तर और दक्षिणी राज्य, इस लाभ से वंचित रहे।
  5. ii) पर्यावरणीय समस्याएं:
    रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अति प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता में कमी आई। भूजल स्तर में गिरावट और जल प्रदूषण गंभीर समस्याएं बन गईं।

iii) सामाजिक असमानता:
छोटे और सीमांत किसान हरित क्रांति की महंगी तकनीकों को अपनाने में असमर्थ रहे, जिससे सामाजिक और आर्थिक असमानता बढ़ी।

  1. iv) कृषि पर निर्भरता:
    हरित क्रांति के दौरान गेहूं और चावल पर अधिक ध्यान दिया गया, जिससे अन्य फसलों की उपेक्षा हुई। यह कृषि विविधता में कमी का कारण बना।
  2. v) जलवायु पर प्रभाव:
    मशीनों और उर्वरकों के बढ़ते उपयोग ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ाया।

हरित क्रांति से जुड़ी चुनौतियां

  1. संसाधनों की सीमित उपलब्धता:
    सीमित जल संसाधन और भूमि की कमी भविष्य में कृषि उत्पादन के लिए बड़ी बाधा बन सकती है।
  2. तकनीकी और वित्तीय कठिनाइयां:
    छोटे और गरीब किसानों के लिए तकनीकी ज्ञान और वित्तीय सहायता की कमी।
  3. पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव:
    जैव विविधता की हानि और प्राकृतिक संसाधनों के अति-शोषण के कारण पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव।

हरित क्रांति के भविष्य की दिशा

हरित क्रांति ने भारत के कृषि क्षेत्र को मजबूत बनाने में अहम योगदान दिया, लेकिन इसकी स्थिरता और समावेशिता सुनिश्चित करना आवश्यक है। इसके लिए कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं:

  1. कृषि का सतत विकास:
    • जैविक खेती और प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना।
    • जल संरक्षण तकनीकों का उपयोग।
  2. कृषि विविधता को प्रोत्साहन:
    • गेहूं और चावल के अलावा अन्य फसलों, जैसे दालें, तिलहन और बागवानी, पर ध्यान देना।
  3. छोटे किसानों का सशक्तिकरण:
    • सस्ती तकनीक और ऋण की उपलब्धता।
    • सहकारी समितियों का गठन।
  4. शोध और विकास:
    • उन्नत बीज और टिकाऊ कृषि तकनीकों के विकास के लिए निवेश।
  5. पर्यावरणीय जागरूकता:
    • रासायनिक उर्वरकों के बजाय जैविक खाद का उपयोग।
    • पर्यावरणीय क्षति को कम करने के लिए नई तकनीकों का विकास।

निष्कर्ष

हरित क्रांति ने भारत को खाद्य संकट से निकालकर आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर किया। हालांकि, इसके कुछ नकारात्मक प्रभाव भी सामने आए, जिनसे निपटने के लिए टिकाऊ और समावेशी कृषि नीतियों की आवश्यकता है। यदि सतत कृषि पद्धतियों को अपनाया जाए, तो हरित क्रांति का प्रभाव आने वाली पीढ़ियों के लिए भी लाभदायक सिद्ध हो सकता है।

 

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